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दिल में हमारे अब कोई अरमाँ नहीं रहा - अज़ीज़ वारसी कविता - Darsaal

दिल में हमारे अब कोई अरमाँ नहीं रहा

दिल में हमारे अब कोई अरमाँ नहीं रहा

वो एहतिमाम-ए-गर्दिश-ए-दौराँ नहीं रहा

पेश-ए-नज़र वो ख़ुसरव-ए-ख़ूबाँ नहीं रहा

मेरी हयात-ए-शौक़ का सामाँ नहीं रहा

समझा रहा हूँ यूँ दिल-ए-मुज़्तर को हिज्र में

वो कौन है जो ग़म से परेशाँ नहीं रहा

देखा है मैं ने गेसू-ए-काफ़िर का मोजज़ा

तार-ए-नफ़स भी मेरा मुसलमाँ नहीं रहा

अश्कों के साथ साथ कुछ अरमाँ निकल गए

बेचैनियों का दिल में वो तूफ़ाँ नहीं रहा

ऐ चारासाज़ सई-ए-मुसलसल फ़ुज़ूल है

तेरा मरीज़ क़ाबिल-ए-दरमाँ नहीं रहा

उस की हयात उस के लिए मौत ऐ 'अज़ीज़'

जिस पर कि उस निगाह का एहसाँ नहीं रहा

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