अजीब कैफ़ियत आख़िर तलक रही दिल की
अजीब कैफ़ियत आख़िर तलक रही दिल की
फ़राज़-ए-दार में भी जुस्तुजू थी मंज़िल की
वो हुस्न जिस से मिला है मुझे शुऊर-ए-वफ़ा
ख़ुदा नहीं था तो क्यूँ वही-ए-इश्क़ नाज़िल की
तराशे कितने ही बुत आज़री के फ़न ने मगर
मिली न एक भी सूरत तिरे मुक़ाबिल की
अब आँखें बंद हैं ताकि कोई समझ न सके
मिरी निगाह में तस्वीर होगी क़ातिल की
दिमाग़ दीदा ओ दिल सब ने रोकना चाहा
मगर जुनूँ ने मिरी हर दलील बातिल की
इसी को कहते हैं साहिल पे रह के तिश्ना-लबी
तलाश है तिरी महफ़िल में जान-ए-महफ़िल की
ये बात सच है कि मरना सभी को है लेकिन
अलग ही होती है लज़्ज़त निगाह-ए-क़ातिल की
था रहबरों पे भरोसा तो अब भटकता हूँ
मुझे ख़बर ही नहीं थी फ़रेब-ए-मंज़िल की
मियाँ 'शहीद' ये माना कि तुम भी शायर हो
मगर बताओ कि हक़ आगही भी हासिल की
(1025) Peoples Rate This