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अजीब कैफ़ियत आख़िर तलक रही दिल की - अज़ीज़ुर्रहमान शहीद फ़तेहपुरी कविता - Darsaal

अजीब कैफ़ियत आख़िर तलक रही दिल की

अजीब कैफ़ियत आख़िर तलक रही दिल की

फ़राज़-ए-दार में भी जुस्तुजू थी मंज़िल की

वो हुस्न जिस से मिला है मुझे शुऊर-ए-वफ़ा

ख़ुदा नहीं था तो क्यूँ वही-ए-इश्क़ नाज़िल की

तराशे कितने ही बुत आज़री के फ़न ने मगर

मिली न एक भी सूरत तिरे मुक़ाबिल की

अब आँखें बंद हैं ताकि कोई समझ न सके

मिरी निगाह में तस्वीर होगी क़ातिल की

दिमाग़ दीदा ओ दिल सब ने रोकना चाहा

मगर जुनूँ ने मिरी हर दलील बातिल की

इसी को कहते हैं साहिल पे रह के तिश्ना-लबी

तलाश है तिरी महफ़िल में जान-ए-महफ़िल की

ये बात सच है कि मरना सभी को है लेकिन

अलग ही होती है लज़्ज़त निगाह-ए-क़ातिल की

था रहबरों पे भरोसा तो अब भटकता हूँ

मुझे ख़बर ही नहीं थी फ़रेब-ए-मंज़िल की

मियाँ 'शहीद' ये माना कि तुम भी शायर हो

मगर बताओ कि हक़ आगही भी हासिल की

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