तसमा-ए-पा
कब से ये बार-ए-गराँ
अपने काँधों पे उठाए हुए तन्हा तन्हा
गश्त करता हूँ मैं हैराँ हैराँ
मैं ने हर-चंद छुड़ाना चाहा
और मज़बूत हुई उस की गुलू-गीर गिरफ़्त
और संगीन हुआ जिस्म-ए-जवाँ पर पहरा
सामने फासला-ए-लामतनाही
दिल में सैकड़ों मन चले अरमानों के रंगीन चराग़
जिन की ख़ुशबू से मोअत्तर है दिमाग़
जिन से मुमकिन है कि मिल जाए मुझे
गुम-शुदा जन्नत का सुराग़
कब से काँधों पे उठाए हुए हैराँ हैराँ
वक़्त का बार-ए-गराँ
सोचता हूँ कि अगर
इस के पैरों के शिकंजे से निकल पाऊँ मैं
बे-कराँ अरसा-ए-हस्ती में बिखर जाऊँ मैं
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