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चाँदनी रात में - अज़ीज़ तमन्नाई कविता - Darsaal

चाँदनी रात में

और मैं चाँदनी रात में सो गया

देखता क्या हूँ

फैली हुई चाँदनी के किनारे किनारे

कई बर्क़-रफ़्तार परछाइयाँ

जाने कब से तआ'क़ुब-कुनाँ

सम्त-ए-ना-आश्ना की तरफ़ हैं रवाँ

और मैं आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ा

राहगीरों से दामन बचाता हुआ

हद्द-ए-आफ़ाक़ से जब गुज़रने लगा

देखता क्या हूँ

इक बे-कराँ बहर है आसमाँ से ज़मीं तक मुहीत

जिस में हर साया-ए-तेज़-रौ डूब कर

धार लेता है भीगे उजाले का रूप

मैं भी डूबा हूँ इस बहर में बार-हा

चाँदनी की झलक भी न पाई कहीं

जिस्म ओ जाँ की सियाही उभरती रही

और हर बार तारीक माहौल में

आँख खुलती रही

चाँदनी रात में!!

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