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जिस को चलना है चले रख़्त-ए-सफ़र बाँधे हुए - अज़ीज़ तमन्नाई कविता - Darsaal

जिस को चलना है चले रख़्त-ए-सफ़र बाँधे हुए

जिस को चलना है चले रख़्त-ए-सफ़र बाँधे हुए

हम जहाँ-गश्त हैं उट्ठे हैं कमर बाँधे हुए

यूँ तो हर गाम कई दाम हैं दश्त-ए-शब में

हम भी आए हैं पर-ओ-बाल-ए-सहर बाँधे हुए

सू-ए-अफ़्लाक सफ़ीरान-ए-दुआ जाए हैं

डर है लौट आएँ न ज़ंजीर-ए-असर बाँधे हुए

अहल-ए-ज़िंदाँ हैं अभी मुंतज़िर-ए-फ़स्ल-ए-बहार

शाख़-ए-फ़र्दा से ख़याल-ए-गुल-ए-तर बाँधे हुए

दश्त-ए-इम्काँ में कोई साथ मिरा दे न सका

कितने रहबर मिले दस्तार-ए-ख़िज़र बाँधे हुए

कोई आग़ोश कुशादा है न वा कोई नज़र

या'नी जो दर है कोई पर्दा-ए-दर बाँधे हुए

बुझ गई शम्अ' नज़र मुँद गईं शब की आँखें

सुब्ह अब आई है पुश्तारा-ए-ज़र बाँधे हुए

हम 'तमन्नाई' जहान-ए-गुज़राँ की रौ में

सू-ए-शबनम चले उम्मीद-ए-शरर बाँधे हुए

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