दिल में वो दर्द उठा रात कि हम सो न सके
दिल में वो दर्द उठा रात कि हम सो न सके
ऐसे बिखरे थे ख़यालात कि हम सो न सके
थपकियाँ देते रहे ठंडी हवा के झोंके
इस क़दर जल उठे जज़्बात कि हम सो न सके
आँखें तकती रहीं तकती रहीं और थक भी गईं
हाए-रे पास-ए-रिवायात कि हम सो न सके
ये भी सच है कि न हुशियार न बेदार थे हम
ये भी सच्ची है मगर बात कि हम सो न सके
एक दो पल के लिए हम को अता हो जाए
नींद ऐ क़िबला-ए-हाजात कि हम सो न सके
साज़-ए-दौराँ पे कुछ इस तरह से अंगुश्त-ए-हयात
छेड़ती जाती थी नग़्मात कि हम सो न सके
एक सन्नाटा था आवाज़ न थी और न जवाब
दिल में इतने थे सवालात कि हम सो न सके
झिलमिलाते रहे तारीक शबिस्ताँ के परे
ऐसे बीते हुए लम्हात कि हम सो न सके
रात भर दश्त-ए-तसव्वुर में भटकते ही रहे
जाने क्या उन से हुई बात कि हम सो न सके
उम्र भर यूँ तो 'तमन्नाई' रहे तेशा-ब-कफ़
इतनी संगीन थी हर रात कि हम सो न सके
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