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दिल में वो दर्द उठा रात कि हम सो न सके - अज़ीज़ तमन्नाई कविता - Darsaal

दिल में वो दर्द उठा रात कि हम सो न सके

दिल में वो दर्द उठा रात कि हम सो न सके

ऐसे बिखरे थे ख़यालात कि हम सो न सके

थपकियाँ देते रहे ठंडी हवा के झोंके

इस क़दर जल उठे जज़्बात कि हम सो न सके

आँखें तकती रहीं तकती रहीं और थक भी गईं

हाए-रे पास-ए-रिवायात कि हम सो न सके

ये भी सच है कि न हुशियार न बेदार थे हम

ये भी सच्ची है मगर बात कि हम सो न सके

एक दो पल के लिए हम को अता हो जाए

नींद ऐ क़िबला-ए-हाजात कि हम सो न सके

साज़-ए-दौराँ पे कुछ इस तरह से अंगुश्त-ए-हयात

छेड़ती जाती थी नग़्मात कि हम सो न सके

एक सन्नाटा था आवाज़ न थी और न जवाब

दिल में इतने थे सवालात कि हम सो न सके

झिलमिलाते रहे तारीक शबिस्ताँ के परे

ऐसे बीते हुए लम्हात कि हम सो न सके

रात भर दश्त-ए-तसव्वुर में भटकते ही रहे

जाने क्या उन से हुई बात कि हम सो न सके

उम्र भर यूँ तो 'तमन्नाई' रहे तेशा-ब-कफ़

इतनी संगीन थी हर रात कि हम सो न सके

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