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अब कौन सी मता-ए-सफ़र दिल के पास है - अज़ीज़ तमन्नाई कविता - Darsaal

अब कौन सी मता-ए-सफ़र दिल के पास है

अब कौन सी मता-ए-सफ़र दिल के पास है

इक रौशनी-ए-सुब्ह थी वो भी उदास है

इक एक करके फ़ाश हुए जा रहे हैं राज़

शायद ये काएनात क़रीन-ए-क़यास है

समझा गई ये तलख़ी-ए-पैहम फ़िराक़ की

इक मुज़्दा-ए-विसाल में कितनी मिठास है

हर चीज़ आ रही है नज़र अपने रूप में

उतरा हुआ फ़रेब-ए-नज़र का लिबास है

इक गर्दिश-ए-दवाम में रोज़ अज़ल से है

वो चश्म-ए-बा-ख़बर कि जो मर्दुम-शनास है

फ़ितरत कहाँ थी अपनी 'तमन्नाई' शबनमी

लेकिन किसी की शोला-निगाही का पास है

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