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कमाल-ए-हुस्न का जब भी ख़याल आया है - अज़ीज़ साबरी कविता - Darsaal

कमाल-ए-हुस्न का जब भी ख़याल आया है

कमाल-ए-हुस्न का जब भी ख़याल आया है

मिसाल-ए-शे'र तिरा नाम दिल पे उतरा है

मैं अपने आप को देखूँ तो किस तरह देखूँ

कि मेरे गिर्द मिरी ज़ात ही का पर्दा है

मैं फ़लसफ़ी न पयम्बर कि राह बतलाऊँ

हर एक शख़्स मुझी से सवाल करता है

ये सच है मैं भी तग़य्युर की ज़द से बच न सका

सवाल ये है कि तू भी तो कितना बदला है

तिरे ख़ुलूस की चादर सिमट गई शायद

मिरा वजूद मुझे अजनबी सा लगता है

अभी तो हालत-ए-दिल का सुधार है मुश्किल

अभी तो तेरी जुदाई का ज़ख़्म ताज़ा है

'अज़ीज़' अपने तज़ादात ही मिटा डालो

ये कौन पूछ रहा है ज़माना कैसा है

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