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मकान ख़ाली है - अज़ीज़ क़ैसी कविता - Darsaal

मकान ख़ाली है

वो जा चुका है हमीं ने उसे निकाला है

ये क्या हुआ कि इक इक चीज़ उठ गई उस की

वो एक कोने में रहता था पर गया जब से

हर एक कोने में रहता दिखाई देता है

चमक रही हैं दर-ओ-बाम उस की तहरीरें

टहल रही हैं सदाएँ यहाँ-वहाँ उस की

कहीं पे नक़्श है उस की निगाह का परतव

खुदी हुई है कहीं उस के पाँव की आहट

बसा हुआ है वो दीवार-ओ-दर के सीने में

बिखर चुका है यहाँ के हर एक ज़र्रे में

अजीब तरह से आबाद है ये वीरानी

गला दबाता है आसेब दम उलटता है

ये वाहिमा है

यही आगही तो आ जाए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी तो आ जाए

मकान ख़ाली है कब से कोई तो आ जाए

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