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फ़स्ल-ए-राएगाँ - अज़ीज़ क़ैसी कविता - Darsaal

फ़स्ल-ए-राएगाँ

हर बरस इन दिनों मैं कहीं भी रहूँ

सिलसिले अब्र के

सुस्त-रौ तेज़-रौ क़ाफ़िले अब्र के

यूँही आते हैं क़ुल्ज़ुम लुटाते हुए

यूँही जाते हैं ये उन का दस्तूर है

लेकिन अब के बरस

मैं अकेला सर-ए-दश्त तिश्ना खड़ा

उन को रह रह के आवाज़ देता रहा

मुझ को भी साथ लेते चलो

क़ाफ़िला छुट गया है मिरा

सिलसिले अब्र के

क़ाफ़िले अब्र के

यूँही आते रहे

यूँही जाते रहे

कब से आँखों को हसरत है बरसात की

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