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एक मंज़र एक आलम - अज़ीज़ क़ैसी कविता - Darsaal

एक मंज़र एक आलम

दिन ढले

मंदिरों के कलस मस्जिदों के मनारे घरों की छतें

सोने चाँदी के पानी से धुलने लगे

क़ुल्ला-ए-कोह से चश्म-ए-नज़्ज़ारा लेकिन बड़ी दूर तक

पिघले सोने की चादर के नीचे तड़पता हुआ

गहरी ज़ुल्मत का एक बहर-ए-ज़ख़्ख़ार भी

देखती रह गई

कैसा मंज़र है ये

मैं अभी उम्र के ढलते सूरज की दुनिया नहीं

फिर भी मेरे सुनहरे दोपहरे तबस्सुम के नीचे कहीं

आँसुओं का समुंदर न बेचैन हो

नीचे आओ ज़रा रिफ़अत-ए-बाम से

और देखो कभी

कैसा आलम है ये

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