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दाद-गर - अज़ीज़ क़ैसी कविता - Darsaal

दाद-गर

मैं जानता हूँ कि आँसू फ़ना का लम्हा है

उसे तिरी निगह-ए-जावेदाँ से रब्त नहीं

मैं जानता हूँ कि तू भी शिकार-ए-दौराँ है

मता-ए-जाँ के सिवा इस क़िमार-ख़ाने में

हर एक नक़्द-ए-नफ़्स हार कर पशीमाँ है

मगर ये रब्त है कैसा ये क्या तअल्लुक़ है

कि जब भी हार के उट्ठा जहाँ की महफ़िल से

उमंग हँस के कलेजे पे चोट खाने की

हुजूम-ए-दुश्ना-ओ-ख़ंजर में मुस्कुराने की

उमंग दाओ पे जान-ए-हज़ीं लगाने की

न जाने क्यूँ मिरे दिल में ख़याल आया है

कि जा के तुझ से शिकायत करूँ ज़माने की

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