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अल्फ़-ए-लैला की आख़िरी सुब्ह - अज़ीज़ क़ैसी कविता - Darsaal

अल्फ़-ए-लैला की आख़िरी सुब्ह

फ़साना कैसे बढ़े

न कोई साहिर-ए-पज़मुर्दा सिन न सौदागर

न चीन से कोई आए न बाख़्तर से कोई

बलख़ के शहर में और क़ाफ़ के परिस्ताँ में

कोई परी न परी-ज़ाद कौन आएगा

फ़साना कैसे बढ़े

विलायतों के फ़रिस्ताद-गान-ए-इश्क़ तो क्या

कनार-ए-बहर पे क़ज़्ज़ाक़ भी नहीं कोई

अज़ा-कुनिंदा-ए-शब है न है पयामी-ए-सुब्ह

न दश्त-ए-रह-ज़दगाँ में है सब्ज़-पोश कोई

न देवता है न अवतार हैं न पैग़म्बर

फ़साना कैसे बढ़े

हज़ारों रातों की वो दास्ताँ तमाम हुई

हज़ारों क़िस्सों की वो रात ख़त्म पर आई

बहाना कोई नहीं

बस अब कि माल-ए-शिकस्त-ए-बयाँ की बारी है

फ़साना कोई नहीं अब तो जाँ की बारी है

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