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उन्हें सवाल ही लगता है मेरा रोना भी - अज़ीज़ क़ैसी कविता - Darsaal

उन्हें सवाल ही लगता है मेरा रोना भी

उन्हें सवाल ही लगता है मेरा रोना भी

अजब सज़ा है जहाँ में ग़रीब होना भी

ये रात रात भी है ओढ़ना-बिछौना भी

इस एक रात में है जागना भी सोना भी

वो हब्स-ए-दम है ज़मीं आसमाँ की वुसअ'त में

कि ऐसा तंग न होगा लहद का कोना भी

अजीब शहर है घर भी हैं रास्तों की तरह

किसे नसीब है रातों को छुप के रोना भी

खुले में सोएँगे फिर मोतिया के फूलों से

सजाओ ज़ुल्फ़ बसा लो ज़रा बिछौना भी

नजात-ए-रूह भी अर्ज़ां नुशूर-ए-दिल की तरह

हुआ है सहल ज़मीरों के दाग़ धोना भी

'अज़ीज़' कैसी ये सौदागरों की बस्ती है

गराँ है दिल से यहाँ काठ का खिलौना भी

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