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तमीज़ अपने में ग़ैर में क्या तुम्हें जो अपना न कर सके हम - अज़ीज़ क़ैसी कविता - Darsaal

तमीज़ अपने में ग़ैर में क्या तुम्हें जो अपना न कर सके हम

तमीज़ अपने में ग़ैर में क्या तुम्हें जो अपना न कर सके हम

हर एक महफ़िल हुई गवारा तुम्हारी महफ़िल से क्या उठे हम

सहर पशेमान-ए-आरज़ू हैं चराग़-ए-शब थे सो जल बुझे हम

ख़िराज अश्कों का ख़ून-ए-दिल से जो हम को लेना था ले चुके हम

न शम्अ' काँपी न गीत डूबे उठे जो हम उन की अंजुमन से

चलो बस अच्छा हुआ कि ऐसे कहाँ के महफ़िल-फरोज़ थे हम

न हम स्याही न हम उजाला चराग़ हैं अश्क-ए-आरज़ू के

कि हम सर-दशत-ए-बे-कराँ हैं सुलगते रहते हैं शाम से हम

नज़र उठाओ तो झूम जाएँ नज़र झुकाओ तो डगमगाएँ

तुम्हारी नज़रों से सीखते हैं तरीक़ मौत-ओ-हयात के हम

करें जो शिकवा ज़बाँ कहाँ है ज़बाँ में ताब-ए-फ़ुग़ाँ कहाँ है

कहाँ का परदेस कैसी ग़ुर्बत वतन की गलियों में लुट गए हम

हमारी रूदाद मुख़्तसर है वफ़ा कहाँ की जफ़ा कहाँ की

ब-रंग-ए-गुल मुस्कुरा दिए वो ब-तर्ज़-ए-शबनम बिखर गए हम

'अज़ीज़-क़ैसी' कहाँ रहे तो कि रात उस बुत की अंजुमन में

हुजूम-ए-नग़्मा में ज़िक्र सुन कर किसी दिवाने का रो पड़े हम

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