पस-ए-तर्क-ए-इश्क़ भी उम्र-भर तरफ़-ए-मिज़ा पे तरी रही
पस-ए-तर्क-ए-इश्क़ भी उम्र-भर तरफ़-ए-मिज़ा पे तरी रही
मिरी किश्त-ए-जाँ भी अजीब है कि ख़िज़ाँ के साथ हरी रही
कई बार दौर-ए-कसाद में गिरे मेहर-ओ-माह के दाम भी
मगर एक क़ीमत-ए-जिंस-ए-दिल जो खरी रही तो खरी रही
न वो रस्म-ए-पर्दगी-ए-वफ़ा न छुपा छुपा सा पयाम है
न शमीम-ओ-गुल से कलाम है न सबा की नामा-बरी रही
मैं तही-नसीब सही मगर मिरी चश्म-ए-नम को दुआ तो दे
तिरी माँग ऐ शब-ए-ज़िंदगी सदा मोतियों से भरी रही
सर-ए-दश्त-ए-तार गुज़ार लें किसी तौर रात ये उम्र की
न लगेगी आँख अगर यूँ ही हमें फ़िक्र-ए-शब-बसरी रही
(941) Peoples Rate This