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हर आँख लहू सागर है मियाँ हर दिल पत्थर सन्नाटा है - अज़ीज़ क़ैसी कविता - Darsaal

हर आँख लहू सागर है मियाँ हर दिल पत्थर सन्नाटा है

हर आँख लहू सागर है मियाँ हर दिल पत्थर सन्नाटा है

ये गंगा किस ने पाटी है ये पर्बत किस ने काटा है

चाहत नफ़रत दुनिया उक़्बा ये ख़ैर ख़राबी दर्द दवा

हर धंदा जी का जोखिम है हर सौदा जान का घाटा है

क्या जोग समाधि-ओ-रसधी क्या कश्फ़-ओ-करामत जज़्ब-ओ-जुनूँ

सब आग हवा पानी मिट्टी सब दाल नमक और आटा है

ये रास रंग ये मेल मिलन इक हाथ में चाँद इक में सूरज

इक रात का मौज मज़ा सारा इक दिन का सैर-सपाटा है

घट घाट अंधेरा है कैसे बाँधोगे कहाँ नय्या अपनी

आवाज़ किसे दोगे 'क़ैसी' चौ-धाम यहाँ सन्नाटा है

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