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आह-ए-बे-असर निकली नाला ना-रसा निकला - अज़ीज़ क़ैसी कविता - Darsaal

आह-ए-बे-असर निकली नाला ना-रसा निकला

आह-ए-बे-असर निकली नाला ना-रसा निकला

इक ख़ुदा पे तकिया था वो भी आप का निकला

काश वो मरीज़-ए-ग़म ये भी देखता आलम

चारागर ये क्या गुज़री दर्द जब दवा निकला

अहल-ए-ख़ैर डूबे थे नेकियों की मस्ती में

जो ख़राब-ए-सहबा था बस वो पारसा निकला

ख़िज़्र जान कर हम ने जिस से राह पूछी थी

आ के बीच जंगल में क्या बताएँ क्या निकला

गिर गया अँधेरे में तेरे मेहर का सूरज

दर्द के समुंदर से चाँद याद का निकला

इश्क़ क्या हवस क्या है बंदिश-ए-नफ़स क्या है

सब समझ में आया है तू जो बेवफ़ा निकला

जिस ने दी सदा तुम को शम्अ' बन के ज़ुल्मत में

रह-गज़ीदगाँ देखो किस का नक़्श-ए-पा निकला

इक नवा-ए-रफ़्ता की बाज़गश्त थी 'क़ैसी'

दिल जिसे समझते थे दश्त-ए-बे-सदा निकला

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