हम क़ाफ़िले से बिछड़े हुए हैं मगर 'नबील'
इक रास्ता अलग से निकाले हुए तो हैं
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ख़याल-ओ-ख़्वाब का सारा धुआँ उतर चुका है
परिंदे झील पर इक रब्त-ए-रूहानी में आए हैं
वो दुख नसीब हुए ख़ुद-कफ़ील होने में
उस की सोचें और उस की गुफ़्तुगू मेरी तरह
सुब्ह और शाम के सब रंग हटाए हुए हैं
'नबील' ऐसा करो तुम भी भूल जाओ उसे
दश्त-ओ-सहरा में समुंदर में सफ़र है मेरा
न जाने कैसी महरूमी पस-ए-रफ़्तार चलती है
जिस तरफ़ चाहूँ पहुँच जाऊँ मसाफ़त कैसी
बिखेरता है क़यास मुझ को
वो एक राज़! जो मुद्दत से राज़ था ही नहीं
सारे सपने बाँध रखे हैं गठरी में