गुज़र रहा हूँ किसी ख़्वाब के इलाक़े से
ज़मीं समेटे हुए आसमाँ उठाए हुए
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ज़मीं की आँख से मंज़र कोई उतारते हैं
मैं किसी आँख से छलका हुआ आँसू हूँ 'नबील'
मोजज़े का दर खुला और इक असा रौशन हुआ
दश्त-ओ-सहरा में समुंदर में सफ़र है मेरा
ये किस मक़ाम पे लाया गया ख़ुदाया मुझे
फिर नए साल की सरहद पे खड़े हैं हम लोग
इस बार हवाओं ने जो बेदाद-गरी की
मिरा सवाल है ऐ क़ातिलान-ए-शब तुम से
'नबील' इस इश्क़ में तुम जीत भी जाओ तो क्या होगा
हम क़ाफ़िले से बिछड़े हुए हैं मगर 'नबील'
मुसाफ़िरों से कहो अपनी प्यास बाँध रखें
ख़ाक चेहरे पे मल रहा हूँ मैं