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वक़्त की आँख में सदियों की थकन है, मैं हूँ - अज़ीज़ नबील कविता - Darsaal

वक़्त की आँख में सदियों की थकन है, मैं हूँ

वक़्त की आँख में सदियों की थकन है, मैं हूँ

धूल होते हुए रस्तों का बदन है, मैं हूँ

फिर तिरा शहर उभर आया है मेरे हर सू

फिर वही लोग, वही तर्ज़-ए-सुख़न है, मैं हूँ

एक तारीक सितारे का सफ़र है दरपेश

और उम्मीद की इक ताज़ा करन है, मैं हूँ

एक जंगल है, घने पेड़ हैं, इक नहर है और

इक शिकारी है, कोई ज़ख़्मी हिरन है, मैं हूँ

कौन बतलाए तुझे ऐ मिरे हम-ज़ाद 'नबील'

तेरे हम-राह जो इक और बदन है, मैं हूँ

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