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सुनो मुसाफ़िर! सराए-जाँ को तुम्हारी यादें जला चुकी हैं - अज़ीज़ नबील कविता - Darsaal

सुनो मुसाफ़िर! सराए-जाँ को तुम्हारी यादें जला चुकी हैं

सुनो मुसाफ़िर! सराए-जाँ को तुम्हारी यादें जला चुकी हैं

मोहब्बतों की हिकायतें अब यहाँ से डेरा उठा चुकी हैं

वो शहर-ए-हैरत का शाहज़ादा गिरफ़्त-ए-इदराक में नहीं है

उस एक चेहरे की हैरतों में हज़ार आँखें समा चुकी हैं

हम अपने सर पर गुज़िश्ता दिन की थकन उठाए भटक रहे हैं

दयार-ए-शब तेरी ख़्वाब-गाहें तमाम पर्दे गिरा चुकी हैं

बदलते मौसम की सिलवटों में दबी हैं हिजरत की दास्तानें

वो दास्तानें जो सुनने वालों की नींद कब की उड़ा चुकी हैं

वो सारी सुब्हें तमाम शामें कि जिन के माथे पे हम लिखे थे

सुना है कल शब तुम्हारे दर पर लहू के आँसू बहा चुकी हैं

कहाँ से आए थे तीर हम पर, तनाबें ख़ेमों की किस ने काटीं

गुरेज़ करती हवाएँ हम को तमाम बातें बता चुकी हैं

धुएँ के बादल छटे तो हम ने 'नबील' देखा अजीब मंज़र

ख़मोशियों की सुलगती चीख़ें फ़ज़ा का सीना जला चुकी हैं

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