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ख़याल-ओ-ख़्वाब का सारा धुआँ उतर चुका है - अज़ीज़ नबील कविता - Darsaal

ख़याल-ओ-ख़्वाब का सारा धुआँ उतर चुका है

ख़याल-ओ-ख़्वाब का सारा धुआँ उतर चुका है

यक़ीं के ताक़ में सूरज कोई ठहर चुका है

मुझे उठा के समुंदर में फेंकने वालो

ये देखो एक जज़ीरा यहाँ उभर चुका है

मैं एक नक़्श, जो अब तक न हो सका पूरा

वो एक रंग, जो तस्वीर-ए-जाँ में भर चुका है

ये कोई और ही है मुझ में जो झलकता है

तुम्हें तलाश है जिस की वो कब का मर चुका है

तिरे जवाब की उम्मीद जाँ से बाँधे हुए

मिरा सवाल हवा में कहीं बिखर चुका है

न तार-तार है दामन, न है गरेबाँ चाक

अजीब शक्ल जुनूँ इख़्तियार कर चुका है

मुसाफ़िरों से कहो अपनी प्यास बाँध रखें

सफ़र की रूह में सहरा कोई उतर चुका है

वो जब कि तुझ से उमीदें थीं मेरी दुनिया को

वो वक़्त बीत चुका है वो ग़म गुज़र चुका है

'नबील' ऐसा करो तुम भी भूल जाओ उसे

वो शख़्स अपनी हर इक बात से मुकर चुका है

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