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इस बार हवाओं ने जो बेदाद-गरी की - अज़ीज़ नबील कविता - Darsaal

इस बार हवाओं ने जो बेदाद-गरी की

इस बार हवाओं ने जो बेदाद-गरी की

फिर मेरे चराग़ों ने भी शोरीदा-सरी की

मैं ने किसी हँसते हुए लम्हे की तलब में

इस शहर-ए-दिल-आवेज़ में बस दर-ब-दरी की

कुछ और वसीला मिरे इज़हार को कम था

सौ मैं ने मिरी जान सदा शेर-गरी की

ऐ अहद-ए-रवाँ मैं तिरा मेहमान हुआ था

लेकिन तिरे लोगों ने बड़ी बे-ख़बरी की

हालाँकि कई लोग हैं नाराज़ भी मुझ से

जो बात भी की मैं ने बहर-ए-हाल खरी की

पढ़ लेती हैं लफ़्ज़ों का तनफ़्फ़ुस मिरी सोचें

कुछ दाद तो दी जाए मिरी दीदा-वरी की

मैं वो कि हूँ सदियों की मसाफ़त का मुसाफ़िर

हर लम्हे की आहट ने मिरी हम-सफ़री की

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