पैदा वो बात कर कि तुझे रोएँ दूसरे
रोना ख़ुद अपने हाल पे ये ज़ार ज़ार क्या
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वही हिकायत-ए-दिल थी वही शिकायत-ए-दिल
जीते हैं कैसे ऐसी मिसालों को देखिए
आईना छोड़ के देखा किए सूरत मेरी
लज़्ज़त-ए-ग़म
झूटे वादों पर थी अपनी ज़िंदगी
हाए क्या चीज़ थी जवानी भी
मुसीबत थी हमारे ही लिए क्यूँ
दुआएँ माँगी हैं साक़ी ने खोल कर ज़ुल्फ़ें
क़फ़स में जी नहीं लगता है आह फिर भी मिरा
ऐ सोज़-ए-इश्क़-ए-पिन्हाँ अब क़िस्सा मुख़्तसर है
तमाम अंजुमन-ए-वाज़ हो गई बरहम