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बचपने की याद - अज़ीज़ लखनवी कविता - Darsaal

बचपने की याद

ऐ बचपने की दुनिया तो याद आ रही है

दिल से मिरी सदा-ए-फ़रियाद आ रही है

राहत सुना रही थी अफ़्साना सल्तनत का

थी माँ की गोद मुझ को काशाना सल्तनत का

वो घर कि दूर जिस से थी गर्दिश-ए-ज़माना

आज़ादियों का मेरी आबाद आशियाना

फिरती है अब नज़र में तस्वीर उस मकाँ की

अर्श-ए-बरीं से बेहतर थी सरज़मीं जहाँ की

नाज़ुक-मिज़ाज बन कर वो रूठना मचलना

सेहन-ए-मकाँ में दिन भर वो कूदना-उछलना

अल्लाह-रे वो तख़य्युल अल्लाह-रे साज़-ओ-सामाँ

दुनिया की सल्तनत थी इस ज़िंदगी पे क़ुर्बां

उस अहद-ए-आफ़यत में इक बार फिर सुला दे

ऐ मेरे अहद-ए-माज़ी फिर इक झलक दिखा दे

बाग़-ए-जहाँ में रक्खा उन शादियों ने मुझ को

राहत की लोरियाँ दीं आज़ादियों ने मुझ को

बे-फ़िक्र ज़िंदगी थी ख़ुद होश मुझ को कब था

इक कैफ़-ए-बे-ख़ुदी था मस्त-ए-मय-ए-तरब था

ऐ उम्र-ए-रफ़्ता तू ने की मुझ से बे-वफाई

आ जा पलट के दम भर मैं हूँ तिरा फ़िदाई

दिल में शरारतें थीं कैसे ग़ज़ब की पिन्हाँ

रग रग में बिजलियाँ थीं जोश-ए-तरब की पिन्हाँ

हूँ अपनी ज़िंदगी का अंदाज़ा करने वाला

जन्नत से ला के तू ने दोज़ख़ में मुझ को डाला

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