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ये मशवरा बहम उठ्ठे हैं चारा-जू करते - अज़ीज़ लखनवी कविता - Darsaal

ये मशवरा बहम उठ्ठे हैं चारा-जू करते

ये मशवरा बहम उठ्ठे हैं चारा-जू करते

कि अब मरीज़ को अच्छा था क़िबला-रू करते

ज़बान रुक गई आख़िर सहर के होते ही!

तमाम रात कटी दिल से गुफ़्तुगू करते

सवाद-ए-शहर-ए-ख़मोशाँ का देखिए मंज़र!

सुना न हो जो ख़मोशी को गुफ़्तुगू करते

तमाम रूह की लज़्ज़त इसी पे थी मौक़ूफ़

कि ज़िंदगी में कभी तुम से गुफ़्तुगू करते

जवाब हज़रत-ए-नासेह को हम भी कुछ देते

जो गुफ़्तुगू के तरीक़े से गुफ़्तुगू करते

पहुँच के हश्र के मैदाँ में हौल क्यूँ है 'अज़ीज़'

अभी तो पहली ही मंज़िल है जुस्तुजू करते

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