साफ़ बातिन देर से हैं मुंतज़िर
साफ़ बातिन देर से हैं मुंतज़िर
साक़िया ख़ज़ मा-सफ़ा दा मा-कदर
फिर हयात-ए-चंद-रोज़ा का मआल
मौत पर जब ज़िंदगी है मुनहसिर
रुत बदलते ही फ़ज़ा में गूँज उठा
नग़्मा-ए-या-अय्योहस-साक़ी अदिर
ऐसे वादी में नहीं क्या रहनुमा
ख़ुद जहाँ गुम-कर्दा मंज़िल हूँ ख़िज़र
मशवरा रहमत से कर ऐ अद्ल-ए-हक़
क्या सज़ा जो हो ख़ता का ख़ुद मुक़िर
क्यूँ है असरार-ए-दो-आलम की तलाश
पर्दा-ए-दिल में हैं तेरे मुसत्तिर
क्यूँ मिरी दीवानगी बदनाम है
उन की आँखें ख़ुद हुईं जब मुश्तहर
अल-हज़र पीर-ए-फ़लक की सर-कशी
देखने में तू है उतना मुनकसिर
खो चुका आँखें मगर ऐ बर्क़-ए-हुस्न
दिल रहेगा और रहेगा मुंतज़िर
सुन ले फ़र्याद-ए-'अज़ीज़' जाँ-ब-लब
रब्ब-ए-इन्नी मुस्तग़ीसो फल-फक़्र
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