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क्यूँ न हो शौक़ तिरे दर पे जबीं-साई का - अज़ीज़ लखनवी कविता - Darsaal

क्यूँ न हो शौक़ तिरे दर पे जबीं-साई का

क्यूँ न हो शौक़ तिरे दर पे जबीं-साई का

उस में जौहर है मिरी आईना-सीमाई का

तूर कुश्ता है उसी नाज़-ए-ख़ुद-आराई का

बर्क़ की लहर है नक़्शा तिरी अंगड़ाई का

इश्क़ इक तब्सिरा है हुस्न की रानाई पर

हुस्न इक फ़ल्सफ़ा है इश्क़ की रुस्वाई का

आज इक ख़ाक का ज़र्रा भी नहीं बाक़ी है

दिल-ए-बर्बाद ये हासिल है ख़ुद-आराई का

याद-ए-अय्याम कि थी लब पे मिरे मोहर-ए-सुकूत

अब तो मातम है बपा दिल में शकेबाई का

मौज-दर-मौज रवाँ बादा-ए-सर-जोश-ए-शबाब

आलम-ए-कैफ़ है आलम तिरी अंगड़ाई का

हसरत-ओ-यास का अम्बोह मगर मैं बेकस

ऐसे मजमे' में ये आलम मिरी तन्हाई का

तीरगी शाम-ए-लहद की है भयानक लेकिन

है ये उतरा हुआ जामा शब-ए-तन्हाई का

जज़्र-ओ-मद हुस्न के दरिया में नज़र आता है

क़ाबिल-ए-दीद है आलम तिरी अंगड़ाई का

तेरे दीदार से महरूम रहीं जब आँखें

कोई मसरफ़ ही नहीं फिर मिरी बीनाई का

आलम-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ का ये ग़मनाक सुकूत

इक नमूना है मिरे दिल की शकेबाई का

नींद उन की अगर उड़ जाए तो कुछ दूर नहीं

सो गया जागने वाला शब-ए-तन्हाई का

शे'र दिलकश हो अगर सफ़हा-ए-काग़ज़ पे 'अज़ीज़'

इक मुरक़्क़ा' है कमाल-ए-सुख़न-आराई का

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