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कर चुके बर्बाद दिल को फ़िक्र क्या अंजाम की - अज़ीज़ लखनवी कविता - Darsaal

कर चुके बर्बाद दिल को फ़िक्र क्या अंजाम की

कर चुके बर्बाद दिल को फ़िक्र क्या अंजाम की

अब हमें दे दो ये मिट्टी है हमारे काम की

डूब दे दे बादा-ए-गुल-रंग में ज़ाहिद अगर

देखिए रंगीनियाँ फिर जामा-ए-एहराम की

अक्स-ए-अबरू देखते हैं बादा-ए-सर-जोश में

ईद है साक़ी-परस्तों में हिलाल-ए-जाम की

इब्तिदा-ए-इश्क़ है और बुझ रहा है दिल मिरा

हो चली धीमी अभी से लौ चराग़-ए-शाम की

आँख में आँसू हैं माथे पर अरक़ है मौत का

ले ख़बर उम्र-ए-रवाँ अपने छलकते जाम की

हो गई बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल बे-ज़ौक़-ओ-शुऊर

शाइ'री जो थी मुरादिफ़ मा'नी-ए-इल्हाम की

पुख़्तगी समझे हुए हैं जो तनासुब को फ़क़त

चाहिए इस्लाह उन को इस ख़याल-ए-ख़ाम की

है ये नाज़ुक फ़न जो शायान-ए-तही-मग़ज़ी नहीं

दौर-ए-मज्लिस में ज़रूरत क्या है ख़ाली जाम की

है 'अज़ीज़' आईना-ए-लफ़्ज़ी मुराआतुन-नज़ीर

हुस्न-ए-मा'नी जब नहीं फिर शाइ'री किस काम की

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