जो यहाँ महव-ए-मा-सिवा न हुआ
जो यहाँ महव-ए-मा-सिवा न हुआ
दूर उस से कभी ख़ुदा न हुआ
अहद में तेरे ज़ुल्म क्या न हुआ
ख़ैर गुज़री कि तू ख़ुदा न हुआ
इश्क़ की रूह को दिया सदमा
ज़िंदगी में अगर फ़ना हुआ
यूँही घुट घट के मिट गया आख़िर
उक़्दा-ए-दिल किसी से वा न हुआ
इश्क़ है इक तिलिस्म-ए-राज़-ए-बक़ा
मिट गया दिल मगर फ़ना न हुआ
कर दिया दिल ने ज़िंदा-ए-जावेद
क़ैद-ए-हस्ती से मैं रिहा न हुआ
न मिली दाद-ए-ज़ब्त-ए-इश्क़ 'अज़ीज़'
वो कभी सब्र-आज़मा न हुआ
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