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इस वहम की इंतिहा नहीं है - अज़ीज़ लखनवी कविता - Darsaal

इस वहम की इंतिहा नहीं है

इस वहम की इंतिहा नहीं है

सब कुछ है मगर ख़ुदा नहीं है

क्या इस का सुराग़ कोई पाए

जिस चीज़ की इब्तिदा नहीं है

खुलता ही नहीं फ़रेब-ए-हस्ती

कुछ भी नहीं और क्या नहीं है

इस तरह सितम वो कर रहे हैं

जैसे मेरा ख़ुदा नहीं है

तुम ख़ुश हो तो है मुझे नदामत

हर-चंद मिरी ख़ता नहीं है

देखो तो निगाह-ए-वापसीं को

इस एक नज़र में क्या नहीं है

दुनिया का भरम न खोल ऐ आह

ये राज़ अभी खुला नहीं है

हर ज़र्रा है शाहिद-ए-तजल्ली

इस हुस्न की इंतिहा नहीं है

सरगर्म-ए-तलाश रहने वाले

तेरा भी कहीं पता नहीं है

उमडा है जो दिल 'अज़ीज़' रो लो

आँसू कोई रोकता नहीं है

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