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चश्म-ए-साक़ी का तसव्वुर बज़्म में काम आ गया - अज़ीज़ लखनवी कविता - Darsaal

चश्म-ए-साक़ी का तसव्वुर बज़्म में काम आ गया

चश्म-ए-साक़ी का तसव्वुर बज़्म में काम आ गया

भर गई शीशों में मय गर्दिश में ख़ुद जाम आ गया

मुज़्तरिब दिल इक तजल्ली में फ़क़त काम आ गया

इब्तिदा ही में ख़याल-ए-इबरत-अंजाम आ गया

हुस्न ख़ुद-आरा न यूँ होता हिजाब-अंदर-हिजाब

शान-ए-तमकीं को ख़याल-ए-मंज़र-ए-आम आ गया

हुस्न ने इतना तग़ाफ़ुल मेरी हस्ती से किया

रफ़्ता रफ़्ता ज़िंदगी का मुझ पे इल्ज़ाम आ गया

इंतिज़ार अब शाक़ है ऐ साक़ी-ए-पैमाँ-शिकन

घिर गए बादल सुराही आ गई जाम आ गया

हम तो समझे थे सुकूँ पाएँगे बे-होशी के बा'द

होश जब आया तो फिर लब पर तिरा नाम आ गया

ख़ाक आख़िर हो गया सब साज़-ओ-सामान-ए-हयात

क्यूँ दिल-ए-बर्बाद-ए-हसरत अब तो आराम आ गया

हो गई आसूदगी झगड़ा चुका राहत मिली

ना-तवाँ था दिल नबर्द-ए-इश्क़ में काम आ गया

दिल ने की पीरी में पैदा ग़फ़लत-ए-अहद-ए-शबाब

सुब्ह का भूला जो मंज़िल पर सर-ए-शाम आ गया

पर्दा-ए-दुनिया में अब बे-सूद हैं ये कोशिशें

ऐ फ़रेब-ए-आब-ओ-दाना मैं तह-ए-दाम आ गया

रिंद मुस्तग़नी हैं दुनिया से ग़रज़ हम को 'अज़ीज़'

दौलत-ए-जम मिल गई जब हाथ में जाम आ गया

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