भड़क उट्ठेंगे शो'ले एक दिन दुनिया की महफ़िल में
भड़क उट्ठेंगे शो'ले एक दिन दुनिया की महफ़िल में
कहाँ तक जज़्ब होंगी बिजलियाँ सब्र-आज़मा दिल में
लहू रोने लगेंगे साज़-ए-इशरत छेड़ने वाले
अरे ये दर्द आवाज़-ए-शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल में
ये छींटें ख़ून की काफ़ी हैं मेरे बख़्शवाने को
नज़र आती है जन्नत वुसअ'त-ए-दामान-ए-क़ातिल में
अबद तक कौकब-ए-बख़्त-ए-सआदत बन के चमकेंगे
हुए हैं जज़्ब जो क़तरे लहू के तेग़-ए-क़ातिल में
जुनून-ए-बे-सर-ओ-सामाँ की ज़ीनत देखने वाले
मबादा फ़र्क़ आए इश्क़ की तदबीर-ए-मंज़िल में
हज़ारों साल सोज़-ए-दिल ने की थी दोज़ख़-आशामी
क़दम रखते ही मेरे लग गई इक आग महफ़िल में
मगर भूले नहीं हो याद अब तक 'अब्र'-ओ-'हामिद' की
'अज़ीज़' आख़िर वो क़ुव्वत क्यूँ नहीं बाक़ी रही दिल में
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