निगाह-ए-नाज़ में हया भी है
निगाह-ए-नाज़ में हया भी है
इस बनावट की इंतिहा भी है
बे-सर-ओ-पा नहीं है ये दुनिया
इब्तिदा भी है इंतिहा भी है
शब-ए-फ़ुर्क़त में क्या करे कोई
कुछ अँधेरे में सूझता भी है
मेरी इक मुश्त-ए-ख़ाक के पीछे
बाद-ए-सरसर भी है सबा भी है
बज़्म-ए-रिंदाँ में रिंद भी है 'अज़ीज़'
पारसाओं में पारसा भी है
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