Sad Poetry of Aziz Hamid Madni (page 1)
नाम | अज़ीज़ हामिद मदनी |
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अंग्रेज़ी नाम | Aziz Hamid Madni |
जन्म की तारीख | 1922 |
मौत की तिथि | 1991 |
मेरी वफ़ा है उस की उदासी का एक बाब
कुछ अब के हम भी कहें उस की दास्तान-ए-विसाल
ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दोस्त की कशाकश में
ज़ंजीर-ए-पा से आहन-ए-शमशीर है तलब
ये फ़ज़ा-ए-साज़-ओ-मुज़रिब ये हुजूम-ताज-ए-दाराँ
वो साअ'त सूरत-ए-चक़माक़ जिस से लौ निकलती है
वो एक रौ जो लब-ए-नुक्ता-चीं में होती है
वही दाग़-ए-लाला की बात है कि ब-नाम-ए-हुस्न उधर गई
ताज़ा हवा बहार की दिल का मलाल ले गई
सँभल न पाए तो तक़्सीर-ए-वाक़ई भी नहीं
सब पेच-ओ-ताब-ए-शौक़ के तूफ़ान थम गए
नक़्शे उसी के दिल में हैं अब तक खिंचे हुए
न फ़ासले कोई निकले न क़ुर्बतें निकलीं
मिरी आँखें गवाह-ए-तल'अत-ए-आतिश हुईं जल कर
लिखी हुई जो तबाही है उस से क्या जाता
क्या हुए बाद-ए-बयाबाँ के पुकारे हुए लोग
ख़त्म हुई शब-ए-वफ़ा ख़्वाब के सिलसिले गए
करम का और है इम्काँ खुले तो बात चले
जूयान-ए-ताज़ा-कारी-ए-गुफ़्तार कुछ कहो
जी-दारो! दोज़ख़ की हवा में किस की मोहब्बत जलती है
हिकायत-ए-हुस्न-ए-यार लिखना हदीस-ए-मीना-ओ-जाम कहना
हज़ार वक़्त के परतव-नज़र में होते हैं
हवा आशुफ़्ता-तर रखती है हम आशुफ़्ता-हालों को
हरम का आईना बरसों से धुँदला भी है हैराँ भी
ग़लत-बयाँ ये फ़ज़ा महर ओ कीं दरोग़ दरोग़
फ़िराक़ से भी गए हम विसाल से भी गए
एक-आध हरीफ़-ए-ग़म-ए-दुनिया भी नहीं था
एक ही शहर में रहते बस्ते काले कोसों दूर रहा
बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं
ऐ शहर-ए-ख़िरद की ताज़ा हवा वहशत का कोई इनआम चले