वक़्त ही वो ख़त-ए-फ़ासिल है कि ऐ हम-नफ़सो
दूर है मौज-ए-बला और किनारे हुए लोग
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एक ही शहर में रहते बस्ते काले कोसों दूर रहा
दिलों की उक़्दा-कुशाई का वक़्त है कि नहीं
लिखी हुई जो तबाही है उस से क्या जाता
वही दाग़-ए-लाला की बात है कि ब-नाम-ए-हुस्न उधर गई
माना कि ज़िंदगी में है ज़िद का भी एक मक़ाम
सलीब ओ दार के क़िस्से रक़म होते ही रहते हैं
हवा आशुफ़्ता-तर रखती है हम आशुफ़्ता-हालों को
निसार यूँ तो हुआ तुझ पे नक़्द-ए-जाँ क्या क्या
वो एक रौ जो लब-ए-नुक्ता-चीं में होती है
ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दोस्त की कशाकश में
ताज़ा हवा बहार की दिल का मलाल ले गई
हिकायत-ए-हुस्न-ए-यार लिखना हदीस-ए-मीना-ओ-जाम कहना