तिलिस्म-ए-शेवा-ए-याराँ खुला तो कुछ न हुआ
कभी ये हब्स-ए-दिल-ओ-जाँ खुले तो बात चले
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न फ़ासले कोई निकले न क़ुर्बतें निकलीं
तिलिस्म-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा ओ दाम-ए-बर्दा-फ़रोश
काज़िब सहाफ़तों की बुझी राख के तले
जी है बहुत उदास तबीअत हज़ीं बहुत
ऐसी कोई ख़बर तो नहीं साकिनान-ए-शहर
सब पेच-ओ-ताब-ए-शौक़ के तूफ़ान थम गए
वक़्त ही वो ख़त-ए-फ़ासिल है कि ऐ हम-नफ़सो
बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं
जूयान-ए-ताज़ा-कारी-ए-गुफ़्तार कुछ कहो
ताज़ा हवा बहार की दिल का मलाल ले गई
अलग सियासत-ए-दरबाँ से दिल में है इक बात
सुलग रहा है उफ़ुक़ बुझ रही है आतिश-ए-महर