सुलग रहा है उफ़ुक़ बुझ रही है आतिश-ए-महर
रुमूज़-ए-रब्त-ए-गुरेज़ाँ खुले तो बात चले
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बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं
करम का और है इम्काँ खुले तो बात चले
न फ़ासले कोई निकले न क़ुर्बतें निकलीं
ख़लल-पज़ीर हुआ रब्त-ए-मेहर-ओ-माह में वक़्त
बहार चाक-ए-गिरेबाँ में ठहर जाती है
सलीब ओ दार के क़िस्से रक़म होते ही रहते हैं
मेरी वफ़ा है उस की उदासी का एक बाब
गहरे सुर्ख़ गुलाब का अंधा बुलबुल साँप को क्या देखेगा
दो गज़ ज़मीं फ़रेब-ए-वतन के लिए मिली
जो बात दिल में थी उस से नहीं कही हम ने
नक़्शे उसी के दिल में हैं अब तक खिंचे हुए