शहर जिन के नाम से ज़िंदा था वो सब उठ गए
इक इशारे से तलब करता है वीराना मुझे
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तिलिस्म-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा ओ दाम-ए-बर्दा-फ़रोश
तल्ख़-तर और ज़रा बादा-ए-साफ़ी साक़ी
महक में ज़हर की इक लहर भी ख़्वाबीदा रहती है
ऐसी कोई ख़बर तो नहीं साकिनान-ए-शहर
माना कि ज़िंदगी में है ज़िद का भी एक मक़ाम
वो साअ'त सूरत-ए-चक़माक़ जिस से लौ निकलती है
ख़ुदा का शुक्र है तू ने भी मान ली मिरी बात
दिलों की उक़्दा-कुशाई का वक़्त है कि नहीं
वो एक रौ जो लब-ए-नुक्ता-चीं में होती है
आज मुक़ाबला है सख़्त मीर-ए-सिपाह के लिए
क्या हुए बाद-ए-बयाबाँ के पुकारे हुए लोग
सब पेच-ओ-ताब-ए-शौक़ के तूफ़ान थम गए