सदियों में जा के बनता है आख़िर मिज़ाज-ए-दहर
'मदनी' कोई तग़य्युर-ए-आलम है बे-सबब
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एक तरफ़ रू-ए-जानाँ था जलती आँख में एक तरफ़
एक-आध हरीफ़-ए-ग़म-ए-दुनिया भी नहीं था
वो एक रौ जो लब-ए-नुक्ता-चीं में होती है
आज मुक़ाबला है सख़्त मीर-ए-सिपाह के लिए
दिलों की उक़्दा-कुशाई का वक़्त है कि नहीं
इस गुफ़्तुगू से यूँ तो कोई मुद्दआ नहीं
एक ही शहर में रहते बस्ते काले कोसों दूर रहा
जब आई साअत-ए-बे-ताब तेरी बे-लिबासी की
उन को ऐ नर्म हवा ख़्वाब-ए-जुनूँ से न जगा
न फ़ासले कोई निकले न क़ुर्बतें निकलीं
तिलिस्म-ए-शेवा-ए-याराँ खुला तो कुछ न हुआ
सुलग रहा है उफ़ुक़ बुझ रही है आतिश-ए-महर