मिरा चाक-ए-गिरेबाँ चाक-ए-दिल से मिलने वाला है
मगर ये हादसे भी बेश ओ कम होते ही रहते हैं
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लिखी हुई जो तबाही है उस से क्या जाता
वो साअ'त सूरत-ए-चक़माक़ जिस से लौ निकलती है
आज मुक़ाबला है सख़्त मीर-ए-सिपाह के लिए
जी है बहुत उदास तबीअत हज़ीं बहुत
माना कि ज़िंदगी में है ज़िद का भी एक मक़ाम
सदियों में जा के बनता है आख़िर मिज़ाज-ए-दहर
आतिश-ए-मीना नज़र आई हरीफ़ाना मुझे
जो बात दिल में थी उस से नहीं कही हम ने
जी-दारो! दोज़ख़ की हवा में किस की मोहब्बत जलती है
नरमी हवा की मौज-ए-तरब-ख़ेज़ अभी से है
ख़लल-पज़ीर हुआ रब्त-ए-मेहर-ओ-माह में वक़्त
इस गुफ़्तुगू से यूँ तो कोई मुद्दआ नहीं