खुला ये दिल पे कि तामीर-ए-बाम-ओ-दर है फ़रेब
बगूले क़ालिब-ए-दीवार-ओ-दर में होते हैं
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महक में ज़हर की इक लहर भी ख़्वाबीदा रहती है
हज़ार वक़्त के परतव-नज़र में होते हैं
मुबहम से एक ख़्वाब की ताबीर का है शौक़
ख़ुदा का शुक्र है तू ने भी मान ली मिरी बात
जो बात दिल में थी उस से नहीं कही हम ने
तिलिस्म-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा ओ दाम-ए-बर्दा-फ़रोश
नरमी हवा की मौज-ए-तरब-ख़ेज़ अभी से है
सूरत-ए-ज़ंजीर मौज-ए-ख़ूँ में इक आहंग है
हुस्न की शर्त-ए-वफ़ा जो ठहरी तेशा ओ संग-ए-गिराँ की बात
माना कि ज़िंदगी में है ज़िद का भी एक मक़ाम
बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं
वो साअ'त सूरत-ए-चक़माक़ जिस से लौ निकलती है