कह सकते तो अहवाल-ए-जहाँ तुम से ही कहते
तुम से तो किसी बात का पर्दा भी नहीं था
Habib Jalib
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Jaun Eliya
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
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करम का और है इम्काँ खुले तो बात चले
ख़ुदा का शुक्र है तू ने भी मान ली मिरी बात
क्या हुए बाद-ए-बयाबाँ के पुकारे हुए लोग
वो एक रौ जो लब-ए-नुक्ता-चीं में होती है
शहर जिन के नाम से ज़िंदा था वो सब उठ गए
वक़्त ही वो ख़त-ए-फ़ासिल है कि ऐ हम-नफ़सो
तिलिस्म-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा ओ दाम-ए-बर्दा-फ़रोश
खुला ये दिल पे कि तामीर-ए-बाम-ओ-दर है फ़रेब
वही दाग़-ए-लाला की बात है कि ब-नाम-ए-हुस्न उधर गई
दो गज़ ज़मीं फ़रेब-ए-वतन के लिए मिली
न फ़ासले कोई निकले न क़ुर्बतें निकलीं