जब आई साअत-ए-बे-ताब तेरी बे-लिबासी की
तो आईने में जितने ज़ाविए थे रह गए जल कर
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वफ़ा की रात कोई इत्तिफ़ाक़ थी लेकिन
बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं
हज़ार वक़्त के परतव-नज़र में होते हैं
हिकायत-ए-हुस्न-ए-यार लिखना हदीस-ए-मीना-ओ-जाम कहना
ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दोस्त की कशाकश में
ज़हर का जाम ही दे ज़हर भी है आब-ए-हयात
ऐसी कोई ख़बर तो नहीं साकिनान-ए-शहर
काज़िब सहाफ़तों की बुझी राख के तले
ऐ शहर-ए-ख़िरद की ताज़ा हवा वहशत का कोई इनआम चले
महक में ज़हर की इक लहर भी ख़्वाबीदा रहती है
दिलों की उक़्दा-कुशाई का वक़्त है कि नहीं
एक तरफ़ रू-ए-जानाँ था जलती आँख में एक तरफ़