ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दोस्त की कशाकश में
हम ऐसे लोग तो रंज-ओ-मलाल से भी गए
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वक़्त ही वो ख़त-ए-फ़ासिल है कि ऐ हम-नफ़सो
खुला ये दिल पे कि तामीर-ए-बाम-ओ-दर है फ़रेब
हिकायत-ए-हुस्न-ए-यार लिखना हदीस-ए-मीना-ओ-जाम कहना
ख़ुदा का शुक्र है तू ने भी मान ली मिरी बात
नरमी हवा की मौज-ए-तरब-ख़ेज़ अभी से है
तिलिस्म-ए-शेवा-ए-याराँ खुला तो कुछ न हुआ
जी-दारो! दोज़ख़ की हवा में किस की मोहब्बत जलती है
वो लोग जिन से तिरी बज़्म में थे हंगामे
जूयान-ए-ताज़ा-कारी-ए-गुफ़्तार कुछ कहो
हरम का आईना बरसों से धुँदला भी है हैराँ भी
सुब्ह से चलते चलते आख़िर शाम हुई आवारा-ए-दिल
इस गुफ़्तुगू से यूँ तो कोई मुद्दआ नहीं