दिलों की उक़्दा-कुशाई का वक़्त है कि नहीं
ये आदमी की ख़ुदाई का वक़्त है कि नहीं
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न फ़ासले कोई निकले न क़ुर्बतें निकलीं
अभी तो कुछ लोग ज़िंदगी में हज़ार सायों का इक शजर हैं
ख़ूँ हुआ दिल कि पशीमान-ए-सदाक़त है वफ़ा
लिखी हुई जो तबाही है उस से क्या जाता
बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं
नरमी हवा की मौज-ए-तरब-ख़ेज़ अभी से है
मिरा चाक-ए-गिरेबाँ चाक-ए-दिल से मिलने वाला है
मुबहम से एक ख़्वाब की ताबीर का है शौक़
खुला ये दिल पे कि तामीर-ए-बाम-ओ-दर है फ़रेब
तल्ख़-तर और ज़रा बादा-ए-साफ़ी साक़ी
ज़हर का जाम ही दे ज़हर भी है आब-ए-हयात
आतिश-ए-मीना नज़र आई हरीफ़ाना मुझे