अलग सियासत-ए-दरबाँ से दिल में है इक बात
ये वक़्त मेरी रसाई का वक़्त है कि नहीं
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वो लोग जिन से तिरी बज़्म में थे हंगामे
मुबहम से एक ख़्वाब की ताबीर का है शौक़
वक़्त ही वो ख़त-ए-फ़ासिल है कि ऐ हम-नफ़सो
तल्ख़-तर और ज़रा बादा-ए-साफ़ी साक़ी
नक़्शे उसी के दिल में हैं अब तक खिंचे हुए
सुलग रहा है उफ़ुक़ बुझ रही है आतिश-ए-महर
अभी तो कुछ लोग ज़िंदगी में हज़ार सायों का इक शजर हैं
सुब्ह से चलते चलते आख़िर शाम हुई आवारा-ए-दिल
एक तरफ़ रू-ए-जानाँ था जलती आँख में एक तरफ़
माना कि ज़िंदगी में है ज़िद का भी एक मक़ाम
हरम का आईना बरसों से धुँदला भी है हैराँ भी