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ज़ंजीर-ए-पा से आहन-ए-शमशीर है तलब - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

ज़ंजीर-ए-पा से आहन-ए-शमशीर है तलब

ज़ंजीर-ए-पा से आहन-ए-शमशीर है तलब

शायद तिरी गली में न पहुँचे ये शोर अब

आख़िर झलक उठी वो गरेबाँ के चाक से

जिस इंतिज़ार-ए-सुब्ह में गुज़री थी मेरी शब

याद आई दिल को तेरे दर-ए-नीम-वा की रात

रुकने लगे क़दम जो सर-ए-राह बे-सबब

ये शानदर-ए-दिलबरी है कि वो जब भी मिल गया

पाया मिज़ाज-ए-दोस्त को आसूदा-ए-तरब

इस ताज़ा-दम हवा में मिरे माह-ए-नीम-माह

उस बाम से जुदा न कभी हो तुलू-ए-शब

आँखें तो खोल दौर-ए-तग़य्युर है हम-नशीं

कुछ खिड़कियाँ तो खोल गई है हवा-ए-शब

चलने को है हवा-ए-गुल-ओ-लाला की जगह

इक नक़्ब सी लगाती हुई सरसर-ए-अक़ब

आँखों पे एक जादू-ए-ज़ुल्मत सा छा गया

हौल-आफ़रीं हय्यूलों के जुम्बिश में आए लब

काज़िब सहाफ़तों की बुझी राख के तले

झुलसा हुआ मिलेगा वरक़-दर-वरक़ अदब

दुनिया बदल गई है हिसाब और हो गए

रम्ज़-ए-तग़य्युर-ए-रुख़-ए-आलम हुए हैं सब

सदियों में जा के बनता है आख़िर मिज़ाज-ए-दहर

'मदनी' कोई तग़य्युर-ए-आलम है बे-सबब

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