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वो साअ'त सूरत-ए-चक़माक़ जिस से लौ निकलती है - अज़ीज़ हामिद मदनी कविता - Darsaal

वो साअ'त सूरत-ए-चक़माक़ जिस से लौ निकलती है

वो साअ'त सूरत-ए-चक़माक़ जिस से लौ निकलती है

तलाश-ए-आदमी के ज़ाविए क्या क्या बदलती है

कभी इक लौ से शश्दर है कभी इक ज़ौ से हैराँ है

ज़मीं किस इंकिशाफ़-ए-नार से यारब पिघलती है

तग़य्युर की सदी है आतिशीं ख़्वाबों की पैकारें

रसद-गाहों के आईनों में इक ता'बीर ढलती है

नज़र को इक उफ़ुक़ ताज़ा-रुख़ी से तेरी मिलता है

वफ़ा उस फ़ासले का राज़ पा कर ख़ुद सँभलती है

निगाह-ए-नाज़ सब रम्ज़-ए-मोहब्बत कह गई आख़िर

ख़िरद की पर्दा-दारी क्या कफ़-ए-अफ़सोस मलती है

लहू में आप जल उठती है कोई शम-ए-ख़ल्वत सी

विसाल-अंदाज़ उस के ख़्वाब में जब रात ढलती है

रिवायत की क़नातें जिस हवा से जलने वाली हैं

सवाद-ए-एशिया में वो हवा अब तेज़ चलती है

वरक़ इक धुँद का ताज़ा तग़य्युर जब उलटता है

तराशीदा रुख़-ए-अल्मास सी इक लौ निकलती है

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